
कबीर का मनुष्य ज्ञान की सहायता से दुर्बलताओ को मुक्त करने वाला प्राणी था कबीर के प्राणी की पहचान कुल से नही बल्कि कर्म से होती थी । यही कारण है कि उनका ईश्वर के सबंध में कहना था कि न मैं देवल में, न मै मस्जिद में, न काबे-कैलाश में, न तो कौने क्रिया कर्म में, न ही योग-बैराग में, मैं सब श्वांसों की श्वास में । महान् कबीर भारत के वे सुकरात हैं, जिन्होंने जहर के प्याले में बैठकर अमृत की वर्षा की ।
बुधवार, 26 जून 2013
उमेश गुप्ता द्वारा प्रकाशित व्यंग्य संग्रह की सूची
उमेश गुप्ता द्वारा प्रकाशित व्यंग्य संग्रह की सूची
1- वेलेन्टाइन कानून
2- अफसर के रिटायरमेंट का दर्द
3- प्रेम एक रोग अनेक
4- हड़ताल बिना जिन्दगी अधूरी
5- कौन कहता है भूत नहीं होता
6- इंडियन टाइम
7- अश्लीलता
8- चापलूसी
9- आ बैल मुझे मार
10- अस्पताल या पांच सितारा होटल
11- फिल्मो में भगवान उर्फ डाक्टर
12 विज्ञापन में नारी या नारी में विज्ञापन
13- रोड इन्सपेक्टर
14- राम तेरी गंगा मेली
15- बिचौलिये
16- पुरातनी और आधुनिकतम नारी
17- अंग्रेजी और आधुनिकता का भूत
18- गरीब,गरीबगरीब कहां है
19- अंधविश्वास बनाम अन्धे विश्वास
20- युवाओं की अगाड़ी- सिनेमा में पिछाड़ी
21- हीरो बने जीरो हिरोइन बनी विषकन्या
22- बच्चे न होने का रोना
23- भगवान का व्यवसायीकरण
24- जिला बदल होने के हादसे
25- त्यौहारों का राजा होली
26- पेट दर्द
27- एक्जामिनेशन- फोबिया
29- शार्टकट
30- गुन्डा टेक्स
31- ज्ञान का कूड़ापन
32- आधुनिकता का पवित्रीकरण
33- आंख के अंधे नाम नयनसुख
34- अंडरवर्ल्ड के अंदर क्या है?
35- छपास की बीमारी
36- मिस्त्री नियरै राखिए
37- हैप्पी भारत
38- हर मर्ज का इलाज-शिक्षा नहीं शिक्षक
39- लोग क्या कहेगे?
40- जानवर और नेता
41- क्रान्ति
42- स्वर्ग का द्वार
43- चूहे और नेता

1- वेलेन्टाइन कानून
2- अफसर के रिटायरमेंट का दर्द
3- प्रेम एक रोग अनेक
4- हड़ताल बिना जिन्दगी अधूरी
5- कौन कहता है भूत नहीं होता
6- इंडियन टाइम
7- अश्लीलता
8- चापलूसी
9- आ बैल मुझे मार
10- अस्पताल या पांच सितारा होटल
11- फिल्मो में भगवान उर्फ डाक्टर
12 विज्ञापन में नारी या नारी में विज्ञापन
13- रोड इन्सपेक्टर
14- राम तेरी गंगा मेली
15- बिचौलिये
16- पुरातनी और आधुनिकतम नारी
17- अंग्रेजी और आधुनिकता का भूत
18- गरीब,गरीबगरीब कहां है
19- अंधविश्वास बनाम अन्धे विश्वास
20- युवाओं की अगाड़ी- सिनेमा में पिछाड़ी
21- हीरो बने जीरो हिरोइन बनी विषकन्या
22- बच्चे न होने का रोना
23- भगवान का व्यवसायीकरण
24- जिला बदल होने के हादसे
25- त्यौहारों का राजा होली
26- पेट दर्द
27- एक्जामिनेशन- फोबिया
29- शार्टकट
30- गुन्डा टेक्स
31- ज्ञान का कूड़ापन
32- आधुनिकता का पवित्रीकरण
33- आंख के अंधे नाम नयनसुख
34- अंडरवर्ल्ड के अंदर क्या है?
35- छपास की बीमारी
36- मिस्त्री नियरै राखिए
37- हैप्पी भारत
38- हर मर्ज का इलाज-शिक्षा नहीं शिक्षक
39- लोग क्या कहेगे?
40- जानवर और नेता
41- क्रान्ति
42- स्वर्ग का द्वार
43- चूहे और नेता
सोमवार, 24 जून 2013
कहे कबीर जिन रामहि जाना, तिनके भये सब काम ।।
- 3-जहं नहिं तहं सब कछू,
- वहं की बांधी आस।
- कहें कबीर ये क्यों न त्रिपत,
- दोउकी एके प्यास।।
4-आप सबनमें होय रहा,
आपन भया निनार।
कहें कबीर एक बूझ बिन,
भटका सब संसार।।
5-राजा रैयत होइ रहा,
रेैयत लीन्हा पाजं।
रयत चाहा सोइ लिया,
ताते भया अकाज।
े मूसा चूंठी आस।।
6-महा गुनन की आगरी,
महा अपरबल नारि।
कहे कबीर यह बडा अचंभा,
व्याहत भई कुमारि
7-निरगुन आपन उन रचा,
लौट भई वह नार।
कहें कबीर अनखायके,
रचा पुरूष निरकार।।
8-निरगुण निराकार ठहरावा,
तिनहूं दिया उपदेश।
कहें कबीर त्रिगुन चले,
जहां न चंद दिनेस।।
9-गुरवा संग सब कोइ भटके,
करता परा न चीन्ह ।
कहें कबीर मनके भ्रम भूले,
गुरू सिक्ख जिव दीन
10-आगे आगे गुरू चला ,
जहां न ससि औ भान।
कहें कबीर पाछे चला,
गुरू में यहू समान।।
11-माता गुरू पुत्र भये चेला,
सुतको मंत्र दीन।
कहें कबीर माता को वचन,
सबहिन चित धर लीन।।
12-तिसका मंत्र सब जपे,
जिसके हाथ न पांव ।
कहे कबीरसो सुत माको,
दिया निरंजन नांव।।
13-जपते जपते जी गया,
काहू मिलिया नाहिं।
कह कबीर तड नाहीं समझे,
सब लागे वहि माहिं।।
14-बिस्व रूप सब साथ था,
बिस्वरूप यह सोय।
जैसे साज पीडकी,
आगे पाछे न होय।।
15- बहे बहाये जात थे,
लोक वेद के साथ।
बीचे सतगुरू मिल गये,
दीपक दीन्हा हाथ।।
16-तुझही में बस कुछ भया,
सब कुछ तुझही माहिं।
कहें कबीर सुन पंडिता,
तेहि ते अंते नाहिं।।
17-करता सब घट पूरना,
जगमें रहा समाय।
कहें कबीर एक जुगति बिन,
सब कुछ गया नसाय।।
18-आद अंत अमर हम देखा,
जीव मुवा नहिं कोय।
यह विश्व रूप ब्रम्हज्ञानी,
उतपत प्रलय न होय।।
19-मत भूलो ब्रम्हज्ञापनी,
लोक वेद के साथ ।
कहे कबीर यह बूझ हमारी,
सो दीपक लीजे हाथ।।
20-त्रिदेवा सुमरन लगे,
पूजा रचा ग्रंथ।
तिरिया गई पर पुरूष पै,
छोड आपना कंथ।
21-त्रिया कंत न माने,
कंता ठााय।
ब्र्रम्हा के प्रतीत भई,
बांधा वेद ग्रंथ।
22-प्रकट नैनन देखत नहीं,
परा वेद के पंथ।।
मायाते यह वेद भै,
वेद मध्य दोय तत्त।
23-निर्गुन सर्गुन दो बतलावे,
कहे नाहिं जो सत्त।।
24-महा माया भाठी रची,
तीन लोक बिस्तार।
कहें कबीर हम रहे निनारे,
पी माता संसार।
25ब्रम्हा पियत पिया सबकाहू,
करता अपन न चीन्ह।
कहें कबीर अब कहत न आवे,
विरंच इसारा कीन्ह।।
26-कब जैहो वहि देशवा,
जहां पुरूष निरंकार।
कहें कबीर हमहू ते कहियो,
जब होय चलन तुम्हारा।।
27-आगे नये तिन किनहुन कहिया,
अब तुम लीजो साथ ।
जो है तुम्हे भरोसवा,
गहो हमारा हाथ।।
28-त्रिय देवा जान्यों नहीं,
कौन रूप केहि देश।
अबहूं चेत समझ नर बौरे,
झूठा दिया उपदेश।।
करता के नहिं काम यह, यह सब माया कीन्ह। कहे कबीर बूझो माया को, नाव धरो जन कीन्ह।।
1-वेद हमारा भेद है,
हम हीं वेदों माहिं।
जिस विधि न्यारे हम रहैं,
सो कोइ जाने नाहि।।
2-हारिल लकडी ना तजे,
नर नाहीं छोडे टेक।
कहें कबीर गुरू शब्द ते,
पकड रहा वह एक।।
3-धरती बेल लगायके,
फल ो भाई ज्ञानी नर,
कहु न कहो संदेस।
जे गये सो नाहिं न बहुरे,
सो वह कैसा देश।।
4-चारों जुग समझाइया,
ना समझे सुत नारि।
कहें कबीर अब कासों कहिये,
अपनी चूकी हार।।
5-माताते डाइंन भई,
लिया जगत सब खाय।
कहें कबीर हम क्या करें,
जगत नाहिं पतियाय।।
6-ससा सिंह को खाइया,
हरना चीता खाय।
कहें कबीर चींटी गज मारी,
बिल्ली मूसा धाय।।
7-बीज ब्रिच्छ दोनों काया में,
कबहू नास न होय।
कहे कबीर या ब्रिच्छ को,
बिरला बूझे कोय।।
8-बीज ब्रिच्छ यक साथ है,
आगे पाछे नाहिं।
बीत ब्रिव्छ में ब्रिच्छ बीज में,
जानत कोई नाहिं।।
9-बिना बीज ब्रिच्छ है नाहीं,
यह जानत सब कोय।
ब्रिच्छ बिना बीजो नहीं,
यामें संक न होय।।
10-धोखे धोखे सब जग बीता,
धोखे गया सिराय।
थित ना पकडे आपनी,
यह दुख कहां सिराय।।
11-नटके साथ जस बेसवा,
जियरा मनके हाथ।
केतक नाच नचावई,
राखे अपने हाथ।।
12-मनके हारे हार है,
मनके जीते जीत।
कहे कबीर तहॅ मन नहीं,
जहॉं हमारी रीत।
13-केते बुंद अलपे गये,
केते सुलप वोहार।
केते बुंद तन धरि गये,
तिन्ह रोवे संसार।।
14-सकल साज एक बूंद में,
जानत नाही कोय।
कहे कबीर जिन जिव भूले,
परमपरे भर्म सोय।।
15-माया ते मन उपजा,
मनते दस औतार।
ब्रम्हा विस्नू धोखे गये,
भरम परा संसार।।
16-करता के नहिं काम यह,
यह सब माया कीन्ह।
कहे कबीर बूझो माया को,
नाव धरो जन कीन्ह।।
17-ब्रिही खेतहिं खात है,
मात सुतन को खात ।
कहें कबीर सुत नाती खाये,
यह दुख नाही विहात।।
18-मूड हिलावे नावत,
भरम भीहा बैठाव।
कहें कबीर इन नावत,
राखा सब जग भरमाय।।
19चुरैल भूत ना कोई,
गन गंध्रव कोइ नाहिं।
मनसा डाइन संका भूत,
संसार पराभ्रम माहिं।।
20-बीच ते आये चार गुण,
बीचे गये ािसराय।
उपज बिनस जाने नहीं,
सब जग रहा भुलान।।
चारों जुग समझाइया, ना समझे सुत नारि। कहें कबीर अब कासों कहिये, अपनी चूकी हार।।
1-वेद हमारा भेद है,
हम हीं वेदों माहिं।
जिस विधि न्यारे हम रहैं,
सो कोइ जाने नाहि।।
2-हारिल लकडी ना तजे,
नर नाहीं छोडे टेक।
कहें कबीर गुरू शब्द ते,
पकड रहा वह एक।।
3-धरती बेल लगायके,
फल ो भाई ज्ञानी नर,
कहु न कहो संदेस।
जे गये सो नाहिं न बहुरे,
सो वह कैसा देश।।
4-चारों जुग समझाइया,
ना समझे सुत नारि।
कहें कबीर अब कासों कहिये,
अपनी चूकी हार।।
-ब्रम्हा यह समझे नहीं, बिना बीज कछु नाहिं। कहें कबीर जो उन कहो, सो राखो मन माहि।।
1- जिनके धन सतनाम है,
तिनका जीवन धन्न।
तिनको सतगुर तारहीं,
बहुर न धरई तन्न।।
2- कबिरा महिमा नामकी,
कहता कही न जाय।
चार मुक्ति औ चार फल,
और परमपद पाय।।
3- नाम सत संसार में,
और सकल है पोच।
कहना सुनना देखना,
करना सोच असोच।।
4- सतलोकै सब लोक पति,
सदा समीप प्रमान।
परमजोत सो जोत मिलि,
प्रेम सरूप समान।।
5- सुख सागर सुख बिलसई,
मानसरोवर न्हाय।
कोट कामसी कामिनी,
देखत नैन अधाय।।
6- महिमा बडी जो साध की,
जाके नाम अधार।
सतगुर केरी दया ते,
उतरे भव जल पार।।
7- कहैं कबिर विचार के,
तब कुछ किरतम नाहिं।
परमपुरूष तहॅं आपही,
अगम अगोचर माहिं।।
8- कहै कबीर विचार के,
जाके बरन न गांव।
निराकार और निर्गुना,
है पूरन सब ठांेेव।।
9- कहैं कबीर विचार के,
क्रत्रिम करता नहिं होय।
यह बाजी सब क्रत्रिम है,
सांच सुनो सब कोय।।
10-सात द्वीप नौ खण्ड में,
औ इकीस ब्रम्हाड।
सतगुरू बिना न बाचिहौ,
काल बडो परचंड।।
11-गुरू चरणोदक अनन्त फल,
हमते कही न जाय।
मनकी पुरवै कामना,
लेवे चित्त लगाय!!
12-सतगुरू समान को हितू,
अन्तर करो विचार।
कागा सो हंसा करै,
दरसावेै ततसार।।
13-गुरू महिमा ग्रंथ यह
, कहै कबीर समझाय।
पाप ताप सब ही हरै,
अमर लोक लैे जाय।।
14-यहि संयोग मूवा सब कोई,
कीन्ह न कोइ विचार।
कहें कबीर चारो युग करता,
सब में फिरा पुकार।।
15-आस करे सुन्य नगरकी,
जहां न करता कोय।
कहें कबीर बूझो जिव अपने,
जाते भरम न होय।।
16-सब जग भूला एक न भूला,
भूला सब संसार।
कहें कबीर बूझो तुम ज्ञानी,
करके अपन विचार।।
17-तिर देवा गये जात न जाने,
गये साधक अवधूत।
कहें कबीर पहिचानो ज्ञानी,
पांचो अरतम भूत।।
18-यह दुबधा मिल दुचित भये,
कैसे न चीन्हे मूल।
कहें कबीर तिरगुन गुणा,
भूले यही सबन की भूल।।
19-सब जग ूठ सनेह।।
चेतो किन तुम चेतो,
परमहंस संयोग।
कहैं कबीर करता नहिं,
एते पांचों में सुख भोग।।
21-देव पैगम्बर रिषि मिलि,
इनही माना मूल।
निराकार में यह सब अटके,
यही सबनकी भूल।।
22-हमरा यह सब कीन कराया,
हमहीं बस परगांव।
कहे कबीर सबको जगह,
हमको नाही ठॉव।।
23-हमरे काज हम सब कीना,
बसा पुरूष इक आय।
रूप न रेखा अंग बिहूना,
घट घट रहा समाय ।।
24-अमिट वस्तु सब मेटे,
जो मेटे सो प्रमान।
मिटतन कीन्ह सनेहरा,
आपइ मिटे निदान।।
25-पैडें सब जग भूलिया,
कहैं लग कहौं समुझाय।
कहें कबीर अब क्या कीजे,
जगते कहा बसाय।।
26-ब्रम्हा यह समझे नहीं,
बिना बीज कछु नाहिं।
कहें कबीर जो उन कहो,
सो राखो मन माहि।।
कहें कबीर माता को वचन, सबहिन चित धर लीन।।
1-माताते डाइंन भई,
लिया जगत सब खाय।
कहें कबीर हम क्या करें,
जगत नाहिं पतियाय।।
2-ससा सिंह को खाइया,
हरना चीता खाय।
कहें कबीर चींटी गज मारी,
बिल्ली मूसा धाय।।
3-बीज ब्रिच्छ दोनों काया में,
कबहू नास न होय।
कहे कबीर या ब्रिच्छ को,
बिरला बूझे कोय।।
4-बीज ब्रिच्छ यक साथ है,
आगे पाछे नाहिं।
बीत ब्रिव्छ में ब्रिच्छ बीज में,
जानत कोई नाहिं।।
5-बिना बीज ब्रिच्छ है नाहीं,
यह जानत सब कोय।
ब्रिच्छ बिना बीजो नहीं,
यामें संक न होय।।
6-धोखे धोखे सब जग बीता,
धोखे गया सिराय।
थित ना पकडे आपनी,
यह दुख कहां सिराय।।
7-नटके साथ जस बेसवा,
जियरा मनके हाथ।
केतक नाच नचावई,
राखे अपने हाथ।।
8-माता गुरू पुत्र भये चेला,
सुतको मंत्र दीन।
कहें कबीर माता को वचन,
सबहिन चित धर लीन।।
तिसका मंत्र सब जपे,
जिसके हाथ न पांव ।
कहे कबीरसो सुत माको,
दिया निरंजन नांव।।
जपते जपते जी गया,
काहू मिलिया नाहिं।
कह कबीर तड नाहीं समझे,
सब लागे वहि माहिं।।
9-बिस्व रूप सब साथ था,
बिस्वरूप यह सोय।
जैसे साज पीडकी,
आगे पाछे न होय।।
बहे बहाये जात थे,
लोक वेद के साथ।
बीचे सतगुरू मिल गये,
दीपक दीन्हा हाथ।।
तुझही में बस कुछ भया,
सब कुछ तुझही माहिं।
कहें कबीर सुन पंडिता,
तेहि ते अंते नाहिं।।
10-करता सब घट पूरना,
जगमें रहा समाय।
कहें कबीर एक जुगति बिन,
सब कुछ गया नसाय।।
11-आद अंत अमर हम देखा,
जीव मुवा नहिं कोय।
यह विश्व रूप ब्रम्हज्ञानी,
उतपत प्रलय न होय।।
मत भूलो ब्रम्हज्ञापनी,
लोक वेद के साथ ।
कहे कबीर यह बूझ हमारी,
सो दीपक लीजे हाथ।।
12-त्रिदेवा सुमरन लगे,
पूजा रचा ग्रंथ।
तिरिया गई पर पुरूष पै,
छोड आपना कंथ।
त्रिया कंत न माने,
कंता ठााय।
ब्र्रम्हा के प्रतीत भई,
बांधा वेद ग्रंथ।
प्रकट नैनन देखत नहीं,
परा वेद के पंथ।।
मायाते यह वेद भै,
वेद मध्य दोय तत्त।
निर्गुन सर्गुन दो बतलावे,
कहे नाहिं जो सत्त।।
13-आपन घर माहुर भयो,
छोड छोड पछताय।
कहे कबीर घर ओैर के,
पूछत पूछत जाय।।
कहे कबीर जो घट लखे, तो फिर घट ही माही।
1-करताते अनखनी माया,
आगम कीन्ह उपाय।
कह कबीर त्रिया चंचल,
राखा पुरूष दुराय।
2-केता हम समझाइया,
पै ना समझे कोय।
उनका कहा जगत मिल माना,
हमरे कहे क्या होय।।
3-पुरूष अपनते विरची नारी,
घर घर कीन्हा ठांव।
निरगुन को करता ठहराया,
मेट हमारा नांव।।
4-त्रियदेवा समझे नहीं,
भई माय ते नार।
उन भूलत भूला सब कोई,
कहें कबीर पुकार।।
5-वेद बरन जो पावें,
कहे एक तो बात।
जैसी कुछ माता कहीं ,
सोइ कहें दिन रात।।
6-ब्रिछ एक छाके नई,
फूटी साखा चार।
अठारह पत्र चार फल लागे,
फुलवा लेहू विचार।।
7-तुम जो भूले वेद विद्या,
करता अपन न चीन्ह।
कह कबीर यहि भ्रम में,
सकल स्रष्टि जिय दीन
8-उनके संग गये तिरदेवा,
गया जग उनके साथ।
कहें कबीर जब मरो मसोसन,
मल मल दोनों हाथ।।
9-निहततसे कैसे तत भया,
सुन्न्ते भया अकार।
कस्यप कन्या कहां हती,
पंडित कहो विचार।
10-पुरूष कामिनी एकसंग,
कथ नर सयोग।
कहे कबीर सुन पंडिता,
पुत्र न कंथ वियोग।।
11-पंडित भूला वेद पढि
, लखा मूल ना भेद।
एक नारि एक पुरूषते,
सकल साजना खेद।।
12-नहि कंठी नहिं माल है,
नहिं तिलक नहीं छाप।
नहिं वाके कछु भेष है,
नहि वाके तप जाप।
13- जात बरण कछु भेष नहीं
नहि धोखे की बात।
ज्ञान भया धोखा गया,
ज्यों तारा परभात।
14-जो बहा सोबहनदे,
ताते चेत शरीर।
तै अपने को बझले,
कहत पुकार कबीर।।
15-आपन घर माहुर भयो,
छोड छोड पछताय।
कहे कबीर घर ओर के
,पूछत पूछत जाय।।
16-पांच तत्त निज मूल है
,हम करता इन माहिं।
नख सिख ते पूरण बना,
सो फिर अंते नाहिं।।
17-हसो तो दाव परखिये
,रोवो काजर ना,
ज्यों काठे घुन खाय
।संसं खायो खेत,
18-केत्र बर लोही भयो
।वाय जगतकी रीत,
हीरा जर कोयला भयो,
उपज बिनसमें सब परे,
19-बहुत मिले बहु भंाति,
मन अनमिल सब सो रहा।
जाते जियकी पांत
,ते जग दुलर्भ पाहुना।
20-जान पूंछ कुंवा ना परे
,तजा न पुरूष विदेह।
कहे कबीर कासो कहूं,
जो छोडे झूठ सनेह।।
महा माया भाठी रची, तीन लोक बिस्तार। कहें कबीर हम रहे निनारे, पी माता संसार।
1-पांच तत्त निज मूल है,
हम करता इन माहिं।
नख सिख ते पूरण बना,
सो फिर अंते नाहिं।।
2-हसो तो दाव परखिये,
रोवो काजर ना,
ज्यों काठे घुन खाय।।
3-संसं खायो खेत,
केत्र बर लोही भयो।
वाय जगतकी रीत,
हीरा जर कोयला भयो,
4-उपज बिनसमें सब परे,
कोई भया न थीर।
करता अपन न चीन्हई,
कासो कहें कबीर।।
5-बहुत मिले बहु भंति,
मन अनमिल सब सो रहा।
जाते जियकी पांत,
ते जग दुलर्भ पाहुना।
6-जान पूंछ कुंवा ना परे,
तजा न पुरूष विदेह।
कहे कबीर कासो कहूं,
जो छोडे झूठ सनेह।।
7-रातदिन कछु है नहीं,
सुन्य पीजरती है सूवा।
कहें कबीर ख्याल यह अटपट,
नाहीं जिया न मूवा।
8-जाने नहीं जान जग दीना,
जानते भया बिजान।
कहें कबीर बेजान को,
अबहुंक परे पहिचानंं।।
9-ग्रहन नाही पर सब जगत,
परे गरहन केरा भाग।
मै नहिं जानों पंडित कवे,
गरहन ऐहि लाग।
10-चंदा गरहन गरासिया,
ऐसे गिरहित लोग।
उग्रह होन न पावई,
दिन दिन बाढ दुबार।
11- चोखा को हम चीन्हा,
चोखा हमें न चीन्हं।
कहें कबीर वह चोर अपरबल,
सबकी बसुधा लीन्ह।।
12-अछे पुरूष का बीज यह,
ब्रिच्छ न जाने कोय।
ताते चोखा मूस अब,
कछुओ कहे न होय।
13-आगे हमारे साथ था,
अब भा जिवका काल!
कह कबीर यह चोखा चीन्हो,
मिटे जीव जंजाल।।
14-पंडित भेद सूनाहू,
नहिं तो छांडो गांव।
मै पूछों तोहि पंडिता,
निराकार केहि ठांव।।
15-पंच तत हम जानत,
और न जानत कोई।
हमरा भेद जो पावे,
तब वह अस्थिर होइ।।
16-दो संयोग जग भीतरे,
कंथ भामिनी नेह।
अष्ट धातका युगल तन,
एक प्राण दो देह।
17-पढ पोथी भटका मारत,
घटकी जानत नाहिं।
कहे कबीर जो घट लखे,
तो फिर घट ही माही।।
18-नरक सरग कोइ और है,
करता के नहिं काम।
सुन कहानी तोसो कहों,
ऐसे कैसे राम।। े
हम करता इन माहिं।
नख सिख ते पूरण बना,
सो फिर अंते नाहिं।।
2-हसो तो दाव परखिये,
रोवो काजर ना,
ज्यों काठे घुन खाय।।
3-संसं खायो खेत,
केत्र बर लोही भयो।
वाय जगतकी रीत,
हीरा जर कोयला भयो,
4-उपज बिनसमें सब परे,
कोई भया न थीर।
करता अपन न चीन्हई,
कासो कहें कबीर।।
5-बहुत मिले बहु भंति,
मन अनमिल सब सो रहा।
जाते जियकी पांत,
ते जग दुलर्भ पाहुना।
6-जान पूंछ कुंवा ना परे,
तजा न पुरूष विदेह।
कहे कबीर कासो कहूं,
जो छोडे झूठ सनेह।।
7-रातदिन कछु है नहीं,
सुन्य पीजरती है सूवा।
कहें कबीर ख्याल यह अटपट,
नाहीं जिया न मूवा।
8-जाने नहीं जान जग दीना,
जानते भया बिजान।
कहें कबीर बेजान को,
अबहुंक परे पहिचानंं।।
9-ग्रहन नाही पर सब जगत,
परे गरहन केरा भाग।
मै नहिं जानों पंडित कवे,
गरहन ऐहि लाग।
10-चंदा गरहन गरासिया,
ऐसे गिरहित लोग।
उग्रह होन न पावई,
दिन दिन बाढ दुबार।
11- चोखा को हम चीन्हा,
चोखा हमें न चीन्हं।
कहें कबीर वह चोर अपरबल,
सबकी बसुधा लीन्ह।।
12-अछे पुरूष का बीज यह,
ब्रिच्छ न जाने कोय।
ताते चोखा मूस अब,
कछुओ कहे न होय।
13-आगे हमारे साथ था,
अब भा जिवका काल!
कह कबीर यह चोखा चीन्हो,
मिटे जीव जंजाल।।
14-पंडित भेद सूनाहू,
नहिं तो छांडो गांव।
मै पूछों तोहि पंडिता,
निराकार केहि ठांव।।
15-पंच तत हम जानत,
और न जानत कोई।
हमरा भेद जो पावे,
तब वह अस्थिर होइ।।
16-दो संयोग जग भीतरे,
कंथ भामिनी नेह।
अष्ट धातका युगल तन,
एक प्राण दो देह।
17-पढ पोथी भटका मारत,
घटकी जानत नाहिं।
कहे कबीर जो घट लखे,
तो फिर घट ही माही।।
18-नरक सरग कोइ और है,
करता के नहिं काम।
सुन कहानी तोसो कहों,
ऐसे कैसे राम।। े
एक नारि एक पुरूषते, सकल साजना खेद।
1-महा माया भाठी रची,
तीन लोक बिस्तार।
कहें कबीर हम रहे निनारे,
पी माता संसार।
2ब्रम्हा पियत पिया सबकाहू,
करता अपन न चीन्ह।
कहें कबीर अब कहत न आवे,
विरंच इसारा कीन्ह।।
3-कब जैहो वहि देशवा,
जहां पुरूष निरंकार।
कहें कबीर हमहू ते कहियो,
जब होय चलन तुम्हारा।।
4-आगे नये तिन किनहुन कहिया,
अब तुम लीजो साथ ।
जो है तुम्हे भरोसवा,
गहो हमारा हाथ।।
5-त्रिय देवा जान्यों नहीं,
कौन रूप केहि देश।
अबहूं चेत समझ नर बौरे,
झूठा दिया उपदेश।।
6-करताते अनखनी माया,
आगम कीन्ह उपाय।
कह कबीर त्रिया चंचल,
राखा पुरूष दुराय।
7-केता हम समझाइया,
पै ना समझे कोय।
उनका कहा जगत मिल माना,
हमरे कहे क्या होय।।
8-पुरूष अपनते विरची नारी,
घर घर कीन्हा ठांव।
निरगुन को करता ठहराया,
मेट हमारा नांव।
9-त्रियदेवा समझे नहीं,
भई माय ते नार।
उन भूलत भूला सब कोई,
कहें कबीर पुकार।।
10-वेद बरन जो पावें,
कहे एक तो बात।
जैसी कुछ माता कहीं ,
सोइ कहें दिन रात।।
11-ब्रिछ एक छाके नई,
फूटी साखा चार।
अठारह पत्र चार फल लागे,
फुलवा लेहू विचार।।
12-तुम जो भूले वेद विद्या,
करता अपन न चीन्ह।
कह कबीर यहि भ्रम में,
सकल स्रष्टि जिय दीन।।
13-उनके संग गये तिरदेवा,
गया जग उनके साथ।
कहें कबीर जब मरो मसोसन,
मल मल दोनों हाथ।।
14-निहततसे कैसे तत भया,
सुन्न्ते भया अकार।
कस्यप कन्या कहां हती,
पंडित कहो विचार।
15-पुरूष कामिनी एकसंग,
कथ नर सयोग।
कहे कबीर सुन पंडिता,
पुत्र न कंथ वियोग।
16-पंडित भूला वेद पढि,
लखा मूल ना भेद।
एक नारि एक पुरूषते,
सकल साजना खेद।।
17-नहि कंठी नहिं माल है,
नहिं तिलक नहीं छाप।
नहिं वाके कछु भेष है,
नहि वाके तप जाप।
18-जात बरण कछु भेष नहीं,
नहि धोखे की बात।
ज्ञान भया धोखा गया,
ज्यों तारा परभात।
19- जो बहा सोबहनदे,
ताते चेत शरीर।
तै अपने को बझले,
कहत पुकार कबीर।।
माया ते मन उपजा, मनते दस औतार। ब्रम्हा विस्नू धोखे गये, भरम परा संसार।।
1-मनके हारे हार है,
मनके जीते जीत।
कहे कबीर तहॅ मन नहीं,
जहॉं हमारी रीत।।
2-केते बुंद अलपे गये,
केते सुलप वोहार।
केते बुंद तन धरि गये,
तिन्ह रोवे संसार।।
3-सकल साज एक बूंद में,
जानत नाही कोय।
कहे कबीर जिन जिव भूले,
परमपरे भर्म सोय।।
4-माया ते मन उपजा,
मनते दस औतार।
ब्रम्हा विस्नू धोखे गये,
भरम परा संसार।।
5-करता के नहिं काम यह,
यह सब माया कीन्ह।
कहे कबीर बूझो माया को,
नाव धरो जन कीन्ह।।
6-ब्रिही खेतहिं खात है,
मात सुतन को खात ।
कहें कबीर सुत नाती खाये,
यह दुख नाही विहात।।
7-मूड हिलावे नावत,
भरम भीहा बैठाव।
कहें कबीर इन नावत,
राखा सब जग भरमाय।।
8-चुरैल भूत ना कोई,
गन गंध्रव कोइ नाहिं।
मनसा डाइन संका भूत,
संसार पराभ्रम माहिं।।
9-बीच ते आये चार गुण,
बीचे गये ािसराय।
उपज बिनस जाने नहीं,
सब जग रहा भुलान।।
10-राम कहत कहत जग बीता,
कहूं न मिलिया राम।
कहे कबीर जिन रामहि जाना,
तिनके भये सब काम ।।
11-यह दूनिया भई बावरी,
अद्रिस्ट सो बांधा नेह।
कहें कबीर द्रिस्टमान छोडके,
सेवे पुरूष विदेह।।
12-जहं नहिं तहं सब कछू,
वहं की बांधी आस।
कहें कबीर ये क्यों न त्रिपत,
दोउकी एके प्यास।।
13-आप सबनमें होय रहा,
आपन भया निनार।
कहें कबीर एक बूझ बिन,
भटका सब संसार।।
14-राजा रैयत होइ रहा,
रेयत लीन्हा पाजं।
रयत चाहा सोइ लिया,
ताते भया अकाज।
मूसा चूंठी आस।।
15-महा गुनन की आगरी,
महा अपरबल नारि।
कहे कबीर यह बडा अचंभा,
व्याहत भई कुमारि।
16-निरगुन आपन उन रचा,
लौट भई वह नार।
कहें कबीर अनखायके,
रचा पुरूष निरकार।।
17-निरगुण निराकार ठहरावा,
तिनहूं दिया उपदेश।
कहें कबीर त्रिगुन चले,
जहां न चंद दिनेस।।
18-गुरवा संग सब कोइ भटके,
करता परा न चीन्ह ।
कहें कबीर मनके भ्रम भूले,
गुरू सिक्ख जिव दीन।।
19-आगे आगे गुरू चला ,
जहां न ससि औ भान।
कहें कबीर पाछे चला,
गुरू में यहू समान।।
मनके जीते जीत।
कहे कबीर तहॅ मन नहीं,
जहॉं हमारी रीत।।
2-केते बुंद अलपे गये,
केते सुलप वोहार।
केते बुंद तन धरि गये,
तिन्ह रोवे संसार।।
3-सकल साज एक बूंद में,
जानत नाही कोय।
कहे कबीर जिन जिव भूले,
परमपरे भर्म सोय।।
4-माया ते मन उपजा,
मनते दस औतार।
ब्रम्हा विस्नू धोखे गये,
भरम परा संसार।।
5-करता के नहिं काम यह,
यह सब माया कीन्ह।
कहे कबीर बूझो माया को,
नाव धरो जन कीन्ह।।
6-ब्रिही खेतहिं खात है,
मात सुतन को खात ।
कहें कबीर सुत नाती खाये,
यह दुख नाही विहात।।
7-मूड हिलावे नावत,
भरम भीहा बैठाव।
कहें कबीर इन नावत,
राखा सब जग भरमाय।।
8-चुरैल भूत ना कोई,
गन गंध्रव कोइ नाहिं।
मनसा डाइन संका भूत,
संसार पराभ्रम माहिं।।
9-बीच ते आये चार गुण,
बीचे गये ािसराय।
उपज बिनस जाने नहीं,
सब जग रहा भुलान।।
10-राम कहत कहत जग बीता,
कहूं न मिलिया राम।
कहे कबीर जिन रामहि जाना,
तिनके भये सब काम ।।
11-यह दूनिया भई बावरी,
अद्रिस्ट सो बांधा नेह।
कहें कबीर द्रिस्टमान छोडके,
सेवे पुरूष विदेह।।
12-जहं नहिं तहं सब कछू,
वहं की बांधी आस।
कहें कबीर ये क्यों न त्रिपत,
दोउकी एके प्यास।।
13-आप सबनमें होय रहा,
आपन भया निनार।
कहें कबीर एक बूझ बिन,
भटका सब संसार।।
14-राजा रैयत होइ रहा,
रेयत लीन्हा पाजं।
रयत चाहा सोइ लिया,
ताते भया अकाज।
मूसा चूंठी आस।।
15-महा गुनन की आगरी,
महा अपरबल नारि।
कहे कबीर यह बडा अचंभा,
व्याहत भई कुमारि।
16-निरगुन आपन उन रचा,
लौट भई वह नार।
कहें कबीर अनखायके,
रचा पुरूष निरकार।।
17-निरगुण निराकार ठहरावा,
तिनहूं दिया उपदेश।
कहें कबीर त्रिगुन चले,
जहां न चंद दिनेस।।
18-गुरवा संग सब कोइ भटके,
करता परा न चीन्ह ।
कहें कबीर मनके भ्रम भूले,
गुरू सिक्ख जिव दीन।।
19-आगे आगे गुरू चला ,
जहां न ससि औ भान।
कहें कबीर पाछे चला,
गुरू में यहू समान।।
पढ पोथी भटका मारत, घटकी जानत नाहिं कहे कबीर जो घट लखे, तो फिर घट ही माही।।
1-सब जग भूला एक न भूला,
भूला सब संसार।
कहें कबीर बूझो तुम ज्ञानी,
करके अपन विचार।।
2-तिर देवा गये जात न जाने,
गये साधक अवधूत।
कहें कबीर पहिचानो ज्ञानी,
पांचो अरतम भूत।।
3-यह दुबधा मिल दुचित भये,
कैसे न चीन्हे मूल।
कहें कबीर तिरगुन गुणा,
भूले यही सबन की भूल।।
4-चेतो किन तुम चेतो,
परमहंस संयोग।
कहैं कबीर करता नहिं,
एते पांचों में सुख भोग।।
5-देव पैगम्बर रिषि मिलि,
इनही माना मूल।
निराकार में यह सब अटके,
यही सबनकी भूल।।
6-रातदिन कछु है नहीं
,सुन्य पीजरती है सूवा।
कहें कबीर ख्याल यह अटपट
,नाहीं जिया न मूवा।
7-जाने नहीं जान जग दीना,
जानते भया बिजान।
कहें कबीर बेजान को,
अबहुंक परे पहिचानंं।।
8-ग्रहन नाही पर सब जगत
,परे गरहन केरा भाग।
मै नहिं जानों पंडित कवे
,गरहन ऐहि लाग।
9-चंदा गरहन गरासिया
,ऐसे गिरहित लोग।
उग्रह होन न पावई,
दिन दिन बाढ दुबार।
10-चोखा को हम चीन्हा,
चोखा हमें न चीन्हं।
कहें कबीर वह चोर अपरबल,
सबकी बसुधा लीन्ह।।
11-अछे पुरूष का बीज यह,
ब्रिच्छ न जाने कोय।
ताते चोखा मूस अब
,कछुओ कहे न होय।
12-आगे हमारे साथ था,
अब भा जिवका काल!
कह कबीर यह चोखा चीन्हो
,मिटे जीव जंजाल।।
13-पंडित भेद सूनाहू,
नहिं तो छांडो गांव।
मै पूछों तोहि पंडिता,
निराकार केहि ठांव।।
14-पंच तत हम जानत,
और न जानत कोई।
हमरा भेद जो पावे,
तब वह अस्थिर होइ।।
15-दो संयोग जग भीतरे,
कंथ भामिनी नेह।
अष्ट धातका युगल तन,
एक प्राण दो देह।
16-पढ पोथी भटका मारत,
घटकी जानत नाहिं
कहे कबीर जो घट लखे,
तो फिर घट ही माही।।
17-नरक सरग कोइ और है,
करता के नहिं काम।
सुन कहानी तोसो कहों,
ऐसे कैसे राम।।
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