कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥
अवगुन कहूँ
शराब का, आपा
अहमक साथ ।
मानुष
से पशुआ करे दाय,
गाँठ से
खात ॥
बाजीगर का
बांदरा, ऐसा
जीव मन के साथ ।
नाना
नाच दिखाय कर,
राखे अपने
साथ ॥
अटकी भाल
शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक
बिना निकले नहीं कोटि पटन को
फ़ूट ॥
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कबीरा जपना
काठ की, क्या
दिख्लावे मोय ।
ह्रदय
नाम न जपेगा,
यह जपनी
क्या होय ॥
पतिवृता
मैली, काली
कुचल कुरूप ।
पतिवृता
के रूप पर, वारो
कोटि सरूप ॥
बैध मुआ रोगी
मुआ, मुआ
सकल संसार ।
एक
कबीरा ना मुआ,
जेहि के
राम अधार ॥
हर चाले तो
मानव, बेहद
चले सो साध ।
हद
बेहद दोनों तजे,
ताको भता
अगाध ॥
राम रहे बन
भीतरे
गुरु की पूजा
ना आस ।
रहे
कबीर पाखण्ड सब
, झूठे
सदा निराश ॥
जाके जिव्या
बन्धन नहीं,
ह्र्दय में
नहीं साँच ।
वाके
संग न लागिये,
खाले वटिया
काँच ॥
तीरथ गये ते
एक फल,
सन्त मिले
फल चार ।
सत्गुरु
मिले अनेक फल,
कहें कबीर
विचार ॥
सुमरणसेमनलाइए,
जैसेपानीबिनमीन
।
प्राण
तजे बिन बिछड़े,
सन्त
कबीर कह दीन ॥
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