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शुक्रवार, 2 अगस्त 2013

कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय । ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥


अवगुन कहूँ शराब का, आपा अहमक साथ ।
मानुष से पशुआ करे दाय, गाँठ से खात ॥


बाजीगर का बांदरा, ऐसा जीव मन के साथ ।
नाना नाच दिखाय कर, राखे अपने साथ ॥


अटकी भाल शरीर में तीर रहा है टूट ।
चुम्बक बिना निकले नहीं कोटि पटन को फ़ूट ॥


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कबीरा जपना काठ की, क्या दिख्लावे मोय ।
ह्रदय नाम न जपेगा, यह जपनी क्या होय ॥


पतिवृता मैली, काली कुचल कुरूप ।
पतिवृता के रूप पर, वारो कोटि सरूप ॥


बैध मुआ रोगी मुआ, मुआ सकल संसार ।
एक कबीरा ना मुआ, जेहि के राम अधार ॥


हर चाले तो मानव, बेहद चले सो साध ।
हद बेहद दोनों तजे, ताको भता अगाध ॥








राम रहे बन भीतरे


गुरु की पूजा ना आस ।
रहे कबीर पाखण्ड सब


, झूठे सदा निराश ॥


जाके जिव्या बन्धन नहीं,


ह्र्दय में नहीं साँच ।
वाके संग न लागिये,


खाले वटिया काँच ॥


तीरथ गये ते एक फल,

 


सन्त मिले फल चार ।
सत्गुरु मिले अनेक फल,


कहें कबीर विचार ॥ 

 

 


सुमरणसेमनलाइए,

 


जैसेपानीबिनमीन ।

 
प्राण तजे बिन बिछड़े

 


सन्त कबीर कह दीन ॥