कुटिल वचन सबसे बुरा, जारि कर तन हार । साधु वचन जल रूप, बरसे अमृत धार ॥
क्या भरोसा
देह का, बिनस
जात छिन मांह ।
साँस-सांस
सुमिरन करो और यतन कुछ नांह
॥
गारी ही सों
ऊपजे, कलह
कष्ट और मींच ।
हारि
चले सो साधु है,
लागि चले
सो नींच ॥
रात गंवाई
सोय के, दिवस
गंवाया खाय ।
हीरा
जन्म अमोल था,
कोड़ी बदले
जाय ॥
दुःख में
सुमिरन सब करे सुख में करै न
कोय।
जो
सुख में सुमिरन करे दुःख काहे
को होय ॥
बडा हुआ तो
क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी
को छाया नही फल लागे अति दूर
॥
कुटिल वचन
सबसे बुरा, जारि
कर तन हार ।
साधु
वचन जल रूप, बरसे
अमृत धार ॥
जग में बैरी
कोई नहीं, जो
मन शीतल होय ।
यह
आपा तो ड़ाल दे,
दया करे सब
कोय ॥
मैं रोऊँ जब
जगत को, मोको
रोवे न होय ।
मोको
रोबे सोचना, जो
शब्द बोय की होय ॥
सोवा साधु
जगाइए, करे
नाम का जाप ।
यह
तीनों सोते भले,
साकित सिंह
और साँप ॥
दुर्बल को
न सताइए, जाकि
मोटी हाय ।
बिना
जीव की हाय से,
लोहा भस्म
हो जाय ॥
दान दिए धन
ना घते, नदी
ने घटे नीर ।
अपनी
आँखों देख लो,
यों क्या
कहे कबीर ॥
दस द्वारे
का पिंजरा, तामे
पंछी का कौन ।
रहे
को अचरज है, गए
अचम्भा कौन ॥
ऐसी वाणी
बोलेए, मन
का आपा खोय ।
औरन
को शीतल करे,
आपहु शीतल
होय ॥
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